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गांधी: कितने अपने कितने पराए -- प्रो देव प्रकाश मिश्रा

Editor : Shubham awasthi | 03 October, 2025

अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था—“आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इंसान इस धरती पर चला था।

गांधी: कितने अपने कितने पराए --  प्रो देव प्रकाश मिश्रा

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 यह टिप्पणी केवल प्रशंसा नहीं, बल्कि आने वाले समय के लिए चेतावनी भी है। आज, जब गांधी की 150वीं जयंती से भी आगे का समय हम जी रहे हैं, हम देख रहे हैं कि आइंस्टीन की यह भविष्यवाणी हमारे सामने कटु सत्य बनकर खड़ी है। गांधी की मूर्तियाँ, चित्र, स्मारक और नोटों पर छपी तस्वीरें तो हमारे बीच हैं, लेकिन गांधी का असली अस्तित्व—उनके विचार, उनका दर्शन और उनका जीवन—धीरे-धीरे धुंधला पड़ रहा है।


गांधी केवल स्वतंत्रता संग्राम के नेता नहीं थे; वे एक विचार थे। एक ऐसा विचार जिसने कहा कि शक्ति सत्य से आती है, न कि तलवार से। उन्होंने दिखाया कि अहिंसा महज़ कमजोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ा साहस है। आज़ादी का आंदोलन उनकी इसी सोच से फला-फूला। गांधी ने कहा था—“साधन की पवित्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी लक्ष्य की।” पर आज राजनीति और समाज साधनों की चिंता छोड़कर केवल परिणाम की दौड़ में हैं। सत्ता पाने के लिए झूठ, छल और हिंसा तक का सहारा लिया जाता है। यह गांधी के सिद्धांतों का खुला अपमान है।


गांधी सबसे अधिक राजनीति में उद्धृत होते हैं, लेकिन सबसे अधिक वहीं उपेक्षित भी हैं। हर पार्टी उन्हें अपना बताती है, पर उनके विचारों पर अमल करने का साहस किसी में नहीं। कांग्रेस ने आज़ादी के बाद गांधी को केवल प्रतीक बना दिया और आज भी सत्ता की राजनीति में उनका नाम हथियार की तरह इस्तेमाल होता है। समाज के स्तर पर गांधी का आदर्श असुविधाजनक है, क्योंकि वह त्याग और आत्मसंयम की माँग करता है। गांधी ने छुआछूत, शराबबंदी और स्त्री-समानता की वकालत की, लेकिन आज का समाज इन्हें गंभीरता से नहीं अपनाता। हम गांधी को पूजते हैं, पर उनके रास्ते पर चलना टालते हैं।


गांधी का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन गांधी की अहिंसा से प्रेरित होकर चलाया। नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को चुनौती दी। संयुक्त राष्ट्र ने 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित किया। पूरी दुनिया गांधी को मानती है, पर उनकी अपनी धरती पर उनके विचार सबसे ज़्यादा उपेक्षित हैं।


भारत आज आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। विकास आवश्यक है, लेकिन गांधी चेतावनी देते हैं—“पृथ्वी सबकी ज़रूरत पूरी कर सकती है, पर किसी का लालच नहीं।” लालच-प्रधान विकास ने हमें पर्यावरण संकट, असमानता और हिंसा के रास्ते पर खड़ा कर दिया है। गांधी का दृष्टिकोण आज के जलवायु संकट का समाधान है। उनका सादगी और संयम का आग्रह हमें अंधाधुंध उपभोगवाद से रोक सकता है। लेकिन हमने गांधी की इस चेतावनी को अनदेखा कर दिया। नतीजा यह है कि प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट हमारे भविष्य को खतरे में डाल रही है।


गांधी ने मातृभाषा-आधारित व्यावहारिक शिक्षा की वकालत की थी। पर आज शिक्षा बाज़ार की वस्तु बन चुकी है। उन्होंने ग्राम स्वराज का सपना देखा था, लेकिन आज गाँव उपेक्षा और पलायन का प्रतीक हैं। यह उनकी अधूरी विरासत है। आज दुनिया नफ़रत, आतंकवाद और वैचारिक हिंसा से त्रस्त है। ऐसे समय में गांधी का संदेश—अहिंसा और सहअस्तित्व—सबसे बड़ा मार्गदर्शन है। अगर समाज और राजनीति ने इसे न अपनाया, तो हिंसा ही हमारी नियति बन जाएगी।


अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन गांधी की शैली का जीवंत उदाहरण था। दुनिया भर में गांधी के नाम पर विश्वविद्यालय, शोध केंद्र और स्मारक बने हैं। यह दिखाता है कि गांधी अब भी प्रासंगिक हैं, बशर्ते हम उनके विचारों को जिएँ। हम गांधी की मूर्तियाँ बनाते हैं, उनके नाम पर सड़कें और संस्थान रखते हैं, नोटों पर उनकी तस्वीर छापते हैं। यह आसान है। कठिन है गांधी की तरह सादा जीवन जीना, सत्य बोलना और अहिंसा का पालन करना। यही हमारी सबसे बड़ी विडंबना है।


आइंस्टीन की टिप्पणी हमें याद दिलाती है कि गांधी जैसे इंसान पर विश्वास तभी होगा जब हम उनके विचारों को अपने जीवन और व्यवस्था में उतारें। अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ सचमुच मानेंगी कि गांधी केवल एक किंवदंती थे, वास्तविकता नहीं। गांधी का नाम जपना आसान है, लेकिन गांधी को जीना कठिन है। स्मारक और जयंती उन्हें अमर नहीं रख सकते। उनकी असली श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके सत्य, अहिंसा, स्वावलंबन और सादगी को व्यवहार में उतारें। तभी हम आइंस्टीन की चेतावनी को चुनौती दे पाएँगे और दुनिया को विश्वास दिला पाएँगे कि इस धरती पर सचमुच ऐसा इंसान चला था जिसने बिना हथियार, बिना सत्ता और बिना लालच के साम्राज्य को घुटनों पर ला दिया।