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हर पेड़ माँ के नाम पर कुकरैल के जंगल क्यों उजाड़े जा रहे हैं?

Editor : Anjali Mishra | 06 June, 2025

जहाँ एक ओर पेड़ लगाए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कट रहे हैं ये कैसा विकास?

हर पेड़ माँ के नाम पर कुकरैल के जंगल क्यों उजाड़े जा रहे हैं?

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एक ओर सरकार कहती है – "हर पेड़ माँ के समान है"... और दूसरी ओर खुद माँ की गोद उजाड़ने की तैयारी! उत्तर प्रदेश में पर्यावरण को लेकर दो तस्वीरें उभर रही हैं – एक जो हरियाली बोने का सपना दिखा रही है, और दूसरी जो उसी हरियाली पर कुल्हाड़ी चला रही है। तो सवाल ये है क्या ये विकास की दोराहे पर खड़ा एक नया धोखा है? या कोई गहरी रणनीति?


क्या हो अगर एक ओर आप 'माँ के नाम एक पेड़' लगाएं, और दूसरी ओर आपकी धरती माँ के हज़ारों पेड़ काट दिए जाएं? उत्तर प्रदेश में पर्यावरण को लेकर दो समानांतर कहानियाँ चल रही हैं—एक उम्मीदों से भरी, दूसरी चिंताओं से घिरी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस पर ‘एक पेड़ माँ के नाम’ जैसा भावनात्मक और व्यापक जनअभियान शुरू किया गया, वहीं लखनऊ का प्रसिद्ध कुकरैल रिज़र्व फॉरेस्ट एक ऐसी परियोजना के घेरे में है, जहाँ 1,500 से अधिक पेड़ काटे जाने की योजना है। यह दोहरापन सिर्फ विकास और संरक्षण के टकराव की कहानी नहीं है, बल्कि उस सोच की पड़ताल भी है जो एक ओर वृक्षारोपण की बात करती है और दूसरी ओर प्राकृतिक आवरण का ह्रास करती है।विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘एक पेड़ माँ के नाम’ अभियान की शुरुआत की। इसका उद्देश्य केवल पेड़ लगाना नहीं, बल्कि अपनी माँ या मातृभूमि के प्रति सम्मान प्रकट करना है। अभियान को जनआंदोलन का रूप देने के लिए जिला अधिकारियों, स्कूलों, कॉलेजों और पंचायतों को सक्रिय किया गया है। इस पहल के माध्यम से राज्य सरकार अगले छह महीनों में कम से कम एक करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य लेकर चल रही है।पेड़ लगाने के साथ ही योगी सरकार ने Sustainable Aviation Fuel Policy (SAF) की भी घोषणा की है।


इसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश को हरित ईंधन के उत्पादन का केंद्र बनाना है। यह नीति राज्य में निजी निवेश को बढ़ावा देगी और वायु प्रदूषण में कमी लाकर एक हरित एविएशन सेक्टर की नींव रखेगी। सरकार इसे आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों दृष्टिकोण से गेमचेंजर मान रही है।राज्य औद्योगिक विकास प्राधिकरण (UPSIDA) ने सहारनपुर में 500 एकड़ का ग्रीन औद्योगिक पार्क बनाने की घोषणा की है। इसमें सौर ऊर्जा, जल संरक्षण और वृक्षारोपण को अनिवार्य किया जाएगा। यह पार्क MSMEs से लेकर बड़े उद्योगों के लिए सुविधाजनक और रोजगार-सृजन का माध्यम बनेगा।लखनऊ का कुकरैल वन क्षेत्र राज्य की शान और शहर का 'ग्रीन लंग्स' है। यहाँ तेंदुए, सियार, हिरण, घड़ियाल, और प्रवासी पक्षियों जैसी दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यही क्षेत्र अब नाइट सफारी और नए चिड़ियाघर की योजनाओं के चलते खतरे में है। सरकार की योजना के अनुसार इस परियोजना के लिए 1,500 से अधिक पेड़ काटे जाएंगे और आधे से अधिक क्षेत्र को निर्माण कार्यों में लगाया जाएगा।यहाँ एक सवाल उठता है|


जब एक ओर राज्य सरकार वृक्षारोपण को माँ के सम्मान से जोड़ रही है, तो उसी सरकार के अधीन पेड़ों की बलि क्यों दी जा रही है? कुकरैल जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र में रात्रि सफारी और मानव निर्माण कार्य वन्यजीवों के आवास को खतरे में डाल सकते हैं। पेड़ कटने से गर्मी बढ़ेगी, वायु गुणवत्ता घटेगी और जैव विविधता नष्ट होगी।विशेषज्ञों का मानना है कि कुकरैल जैसी परियोजनाएं जब तक वैज्ञानिक अध्ययन, पर्यावरणीय मूल्यांकन और जन भागीदारी के साथ न की जाएं, तब तक वे दीर्घकालिक नुकसान कर सकती हैं। पेड़ों का हटना सीधे शहर के तापमान को प्रभावित करेगा। घड़ियाल जैसे सरीसृप और प्रवासी पक्षी भी खतरे में आ सकते हैं।एक पेड़ माँ के नाम’ अभियान जनता को भावनात्मक रूप से जोड़ रहा है, लेकिन क्या कुकरैल के लिए भी वैसी ही जनजागरूकता होगी? नागरिक समूह और पर्यावरणविद् पहले ही इस परियोजना के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं। अगर जनता सच में हर पेड़ को माँ का दर्जा देती है, तो कुकरैल की हरियाली को भी उसी श्रद्धा से बचाना होगा।यह विरोधाभास दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसे यह तय करना होगा कि विकास की कीमत पर पर्यावरण को कितना दांव पर लगाया जाए। एक ओर सरकार टिकाऊ विकास की बात कर रही है, तो दूसरी ओर पारिस्थितिकी संकट को न्योता भी दे रही है।सरकार की मंशा यदि पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास है, तो नीति निर्माण में स्पष्टता और पारदर्शिता ज़रूरी है। 'एक पेड़ माँ के नाम' जैसे अभियानों को तभी पूर्ण सफलता मिल सकती है जब राज्य की सभी परियोजनाओं में पर्यावरणीय मूल्य प्राथमिकता बनें। कुकरैल परियोजना जैसे कदम न सिर्फ जनता में भ्रम पैदा करते हैं, बल्कि सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़े करते हैं।


यदि ग्रीन पॉलिसी को जमीन पर उतारना है, तो योजनाओं में पर्यावरणीय संतुलन सुनिश्चित करना पहली शर्त होनी चाहिए।विकास का विकल्प केवल पेड़ों की कटाई और कंक्रीट निर्माण नहीं होना चाहिए। पर्यावरणविदों का सुझाव है कि रात्रि सफारी या नए चिड़ियाघर जैसी परियोजनाएं उन क्षेत्रों में लाई जानी चाहिए जो जैवविविधता के लिए संवेदनशील न हों। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ गर्मी लगातार रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहाँ वृक्षों का संरक्षण ही सबसे सस्ता और प्रभावी उपाय है। ऐसे में कुकरैल जैसे वन क्षेत्रों को छेड़े बिना, वैकल्पिक स्थानों की तलाश करना अधिक समझदारी भरा कदम होगा।अब यह सवाल सिर्फ सरकार या योजनाकारों का नहीं है, बल्कि आम नागरिकों के जागरूक होने का है। जिस प्रकार 'एक पेड़ माँ के नाम' जनांदोलन बनने की ओर बढ़ रहा है, उसी प्रकार 'कुकरैल को बचाओ' भी एक पर्यावरणीय चेतना का प्रतीक बन सकता है। यदि नागरिक, छात्र, समाजसेवी संस्थाएं और स्थानीय प्रतिनिधि एकजुट होकर इस मुद्दे को उठाएं, तो न केवल 1,500 पेड़ बच सकते हैं, बल्कि यह देशभर में एक सकारात्मक मिसाल भी बन सकती है| जहां विकास और प्रकृति एक साथ चल सकते हैं, टकरा नहीं सकते।


एक पेड़ माँ के नाम’ और कुकरैल परियोजना ये दोनों पहलें उत्तर प्रदेश के दो चेहरे हैं। एक चेहरा संवेदनशील और संरक्षणवादी है, जो प्रकृति को माँ मानता है। दूसरा चेहरा विकास की दौड़ में जंगलों की कुर्बानी देने को तैयार है। उत्तर प्रदेश सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरणीय एजेंडा केवल कागज़ी न रह जाए, बल्कि हर परियोजना में धरती माँ का सम्मान वास्तविक रूप से झलके।

क्योंकि अगर माँ के नाम पेड़ लगाए जा रहे हैं, तो माँ की ज़मीन से पेड़ काटे क्यों जा रहे हैं?