भाषा पर नहीं, विचार पर प्रतिबंध लगाइए -प्रो देव प्रकाश मिश्र।
Editor : Shubham awasthi | 16 October, 2025
तमिलनाडु से आई यह खबर कि मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की सरकार राज्य में हिंदी गानों, फिल्मों और होर्डिंग्स पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है, भाषा और संस्कृति के सवाल पर नई बहस छेड़ देती है। यह प्रस्ताव यदि सच है

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यह न केवल व्यावहारिक रूप से असंभव है, बल्कि भारत की संवैधानिक भावना और बहुभाषी अस्मिता के भी विरुद्ध है।
तमिलनाडु में भाषा और पहचान का प्रश्न ऐतिहासिक रूप से संवेदनशील रहा है। “हिंदी थोपने” के विरोध में जो आंदोलन दशकों पहले चला, उसने राज्य की राजनीति की दिशा तय की थी। तमिल समाज का भाषा-गौरव वास्तविक है और तमिल साहित्य की परंपरा विश्व की सबसे प्राचीन सांस्कृतिक विरासतों में गिनी जाती है। परंतु इस गौरव की रक्षा का रास्ता किसी अन्य भाषा के बहिष्कार से नहीं, बल्कि अपनी भाषा के विकास और प्रसार से होकर जाता है।
भारत की शक्ति उसकी विविधता में है। यहां सैकड़ों भाषाएं, बोलियां और उपभाषाएं हैं — और हर एक हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व का हिस्सा है। संविधान ने न केवल भाषाई स्वतंत्रता की गारंटी दी है, बल्कि यह भी कहा है कि केंद्र और राज्य मिलकर सभी भारतीय भाषाओं का प्रोत्साहन करेंगे। ऐसे में किसी भाषा को प्रतिबंधित करने का विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों के मूल सिद्धांतों से टकराता है।
यह सही है कि केंद्र सरकार की नीतियों में कई बार “हिंदी के प्रचार” का अति उत्साह देखने को मिलता है। इससे गैर-हिंदीभाषी राज्यों में असंतोष पैदा होता है। किंतु इसका जवाब ‘प्रतिबंध’ नहीं, ‘संवाद’ है। अगर किसी को भाषा थोपने से आपत्ति है, तो समाधान किसी दूसरी भाषा को मिटा देने में नहीं, बल्कि भाषाई संतुलन और सम्मान में है।
भाषा कोई खतरा नहीं, एक सेतु है। हिंदी फिल्मों, गानों या विज्ञापनों पर रोक लगाने का मतलब कला, संवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के दरवाजे बंद करना होगा। इससे न तो तमिल की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और न ही लोगों के मन में उसके प्रति नया सम्मान उपजेगा। इसके विपरीत, यह कदम तमिलनाडु को अलगाव की ओर धकेल सकता है और देश की एकता की उस बुनियाद को कमजोर करेगा जो विविधता पर टिकी है।
आज के डिजिटल युग में भाषा को दीवारों में कैद नहीं किया जा सकता। ओटीटी प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया और इंटरनेट ने सीमाओं को मिटा दिया है। किसी भाषा को रोकने का कानून न केवल तकनीकी रूप से असंभव होगा, बल्कि उसका उल्टा प्रभाव पड़ेगा — प्रतिबंधित चीजें हमेशा आकर्षण बढ़ाती हैं।
यदि सरकार वास्तव में तमिल भाषा की रक्षा चाहती है, तो उसे तमिल में नई फिल्में, किताबें और डिजिटल सामग्री के निर्माण को प्रोत्साहन देना चाहिए। तमिल को अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं से जोड़ने की दिशा में निवेश करना चाहिए। भाषा को जीवित रखने का रास्ता ‘प्रतिस्पर्धा’ नहीं, ‘रचनात्मकता’ से होकर गुजरता है।
भारत का गौरव इसी में है कि काशी की गलियों से लेकर मदुरै के मंदिरों तक, हर जगह भाषाएं बोलती हैं, गूंजती हैं, और एक-दूसरे को समृद्ध करती हैं। हिंदी और तमिल का रिश्ता प्रतिस्पर्धा का नहीं, परस्पर सहयोग का होना चाहिए।
प्रतिबंध किसी समस्या का समाधान नहीं होता — वह केवल असुरक्षा की अभिव्यक्ति बन जाता है। जो भाषा दूसरों से संवाद करने में डरती है, वह स्वयं अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं रखती। तमिल जैसी समृद्ध भाषा को किसी भय या बहिष्कार की जरूरत नहीं।
भारत की आत्मा उसके शब्दों में बसती है — और वे शब्द हर भाषा में हैं। हमें याद रखना चाहिए,
“सर्वे भाषाः मातृका:” — सभी भाषाएँ हमारी माताएँ हैं।
उनमें से किसी को कमतर या वर्जित मानना, अपने ही परिवार की एक माँ से दूरी बनाने जैसा है।