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बिहार की सियासत में भूचाल: जातिगत जनगणना और 2025 का रण!

Editor : Shubham awasthi | 04 May, 2025

बिहार की राजनीति हमेशा से एक रोमांचक कहानी रही है, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले यह किसी बॉलीवुड थ्रिलर से कम नहीं! केंद्र सरकार के जातिगत जनगणना के ऐलान ने सियासी तापमान को चरम पर पहुंचा दिया है। यह फैसला नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तिकड़ी का मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है

बिहार की सियासत में भूचाल: जातिगत जनगणना और 2025 का रण!

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जिसे विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव अपने तीखे सियासी दांव से चुनौती दे रहे हैं। बिहार, जहां हर गली-नुक्कड़ पर जात जाति और वोट का गणित चलता है, वहां यह जनगणना सत्ता के सिंहासन को हिला सकती है।  

नीतीश कुमार, जिन्हें बिहार का 'सियासी जादूगर' कहा जाता है, ने 2022 में जाति सर्वे कराकर दिखाया कि ईबीसी (36%) और ओबीसी (27%) बिहार की आबादी का 63% हैं। इस सर्वे ने उनके वोट बैंक को और मजबूत किया। अब, 2025 का रण नजदीक है, और नीतीश एनडीए के चेहरे के रूप में 'प्रगति यात्रा' और विकास के वादों के साथ मैदान में हैं। दूसरी ओर, तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय का राग अलापते हुए यादव-मुस्लिम और ओबीसी-ईबीसी वोटों को साधने में जुटे हैं। उनके हालिया खुले पत्र ने माहौल में आग लगा दी, जिसमें उन्होंने निजी क्षेत्र में समावेशिता की मांग उठाई।  

मोदी और शाह की जोड़ी बीजेपी की जड़ें मजबूत करने के लिए हर चाल चल रही है।



जातिगत जनगणना: सियासी मास्टरस्ट्रोक या पेंच?

30 अप्रैल 2025 को केंद्रीय कैबिनेट ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दी, जिसने बिहार की सियासत में भूचाल ला दिया। यह फैसला न केवल प्रशासनिक है, बल्कि 2025 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए एक सियासी मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है। बिहार में 2022 के जाति सर्वे ने खुलासा किया कि ओबीसी और ईबीसी राज्य की 63.13% आबादी हैं, जबकि सवर्ण 15.52%। इस सर्वे ने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को उजागर किया और नीतीश कुमार के ईबीसी-दलित वोट बैंक को पक्का किया। 

हालांकि, इस सर्वे के बाद नीतीश सरकार ने आरक्षण को 50% से बढ़ाकर 65% करने की कोशिश की, जिसे पटना हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। अब राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना की घोषणा ने सियासी दलों को नए समीकरण बनाने पर मजबूर कर दिया है। बीजेपी, जो पहले इस मुद्दे पर असमंजस में थी, ने विपक्ष के दबाव में यह फैसला लिया। आरएसएस ने भी इसे समर्थन दिया, लेकिन चेतावनी दी कि इसका इस्तेमाल चुनावी हथियार नहीं बनना चाहिए।  

इस फैसले का स्वागत करते हुए नीतीश कुमार ने इसे ऐतिहासिक बताया और पीएम मोदी को धन्यवाद दिया। वहीं, तेजस्वी यादव ने इसे लालू यादव और समाजवादियों की जीत करार दिया, लेकिन बीजेपी पर क्रेडिट लेने का तंज भी कसा। तेजस्वी ने दावा किया कि यह जनगणना सामाजिक जागरूकता का तूफान लाएगी और परिसीमन में इन आंकड़ों को शामिल करने की मांग की।  

लेकिन यह सिक्का दोधारी तलवार है। सवर्ण असंतोष और जातीय ध्रुवीकरण का खतरा बना हुआ है। अगर आरक्षण की मांग बढ़ी, तो केंद्र और राज्य सरकारों पर दबाव बढ़ेगा। क्या यह जनगणना बिहार में सामाजिक न्याय की गंगा बहाएगी या सियासी अस्थिरता लाएगी?  


नीतीश, मोदी, शाह vs तेजस्वी: कौन मारेगा बाजी?

बिहार की सियासत में नीतीश कुमार को 'पलटी मार' का बादशाह कहा जाता है। 2022 में महागठबंधन के साथ जाति सर्वे कराने के बाद, वो 2024 में फिर एनडीए में लौट आए। अब 2025 के रण में नीतीश 'प्रगति यात्रा' और विकास के बुकलेट बांट रहे हैं, जिसमें मिशन 225 (243 में से 225 सीटें) का लक्ष्य है। उनकी ताकत कुर्मी, कोईरी, ईबीसी और कुछ मुस्लिम वोट हैं। लेकिन उनकी लोकप्रियता में गिरावट और बार-बार पाला बदलने की छवि चुनौती बन रही है।  

नरेंद्र मोदी और अमित शाह बीजेपी को बिहार में नंबर वन बनाने के लिए हर चाल चल रहे हैं। मोदी की करिश्माई रैलियां और शाह की सियासी शतरंज सवर्ण, कुछ ओबीसी और दलित वोटों को साधने की कोशिश है। बीजेपी ने जातिगत जनगणना को हरी झंडी देकर ओबीसी वोटों को लुभाने की रणनीति बनाई है, लेकिन सवर्णों के असंतोष का जोखिम भी लिया है। शाह ने इसे सामाजिक समानता का कदम बताया, लेकिन विपक्ष इसे सियासी हथकंडा मानता है।  

तेजस्वी यादव इस जंग में नया मोर्चा खोल रहे हैं। यादव-मुस्लिम वोट उनके पारंपरिक आधार हैं, लेकिन वो ईबीसी और ओबीसी को लुभाने के लिए सामाजिक न्याय का राग अलाप रहे हैं। उनके हालिया खुले पत्र में निजी क्षेत्र में समावेशिता की मांग ने कॉरपोरेट जगत में हलचल मचा दी है। तेजस्वी चाहते हैं कि रियायती जमीन और टैक्स छूट लेने वाली कंपनियां देश की सामाजिक संरचना को दर्शाएं। इसके अलावा, वो मंडल कमीशन की बाकी सिफारिशों को लागू करने की वकालत कर रहे हैं।  

महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, वाम दल) और एनडीए (बीजेपी, जेडीयू, हम, एलजेपी) के बीच मुख्य मुकाबला है। छोटी पार्टियां जैसे जीतन राम मांझी की हम (मुसहर वोट) और चिराग पासवान की एलजेपी (दलित वोट) गठबंधन में अहम भूमिका निभा सकती हैं। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी समीकरण बिगाड़ सकती है



निजी क्षेत्र में समावेशिता: तेजस्वी का सियासी दांव

तेजस्वी यादव ने अपने खुले पत्र में एक नया पैंतरा चला है - निजी क्षेत्र में समावेशिता। उनका कहना है कि निजी कंपनियां, जो सरकार से रियायती जमीन, बिजली सब्सिडी और टैक्स छूट लेती हैं, उन्हें देश की सामाजिक संरचना को दर्शाना चाहिए। बिहार के जाति सर्वे के मुताबिक, ओबीसी और ईबीसी 63% आबादी हैं, लेकिन कॉरपोरेट बोर्डरूम और नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व न के बराबर है।  

यह मांग कॉरपोरेट जगत में भूचाल ला सकती है। तेजस्वी का तर्क है कि अगर सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू हो सकता है, तो निजी क्षेत्र को भी सामाजिक न्याय के दायरे में लाया जाना चाहिए। वो चाहते हैं कि कंपनियों को जाति-आधारित भर्ती डेटा सार्वजनिक करना चाहिए और ओबीसी, ईबीसी, एससी/एसटी के लिए अवसर बढ़ाने चाहिए। यह विचार मंडल कमीशन की उस सिफारिश से प्रेरित है, जो निजी क्षेत्र में आरक्षण की वकालत करती थी।  

लेकिन इस प्रस्ताव का कॉरपोरेट जगत और सवर्ण वर्ग में कड़ा विरोध हो सकता है। कंपनियां इसे उत्पादकता और मेरिट के खिलाफ मान सकती हैं, जबकि सवर्ण इसे अपने अवसरों पर हमला बता सकते हैं। इसके बावजूद, तेजस्वी का यह दांव युवा और पिछड़े वर्ग के बीच जोश भर सकता है, जो बेरोजगारी और असमानता से त्रस्त हैं।  तेजस्वी की दूसरी मांग परिसीमन को लेकर है। वो चाहते हैं कि जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का नक्शा बदला जाए, ताकि ओबीसी और ईबीसी को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले। यह मांग सियासी समीकरणों को पूरी तरह बदल सकती है, क्योंकि बिहार में ज्यादातर सीटें अभी सवर्ण-प्रधान क्षेत्रों में हैं।क्या तेजस्वी का यह दांव 2025 में महागठबंधन को सत्ता दिलाएगा? या यह सियासी उलटफेर का कारण बनेगा?  


2025 का रण: सत्ता का सिंहासन किसका?

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 अक्टूबर-नवंबर में होने की संभावना है, और जातिगत जनगणना इसकी धुरी बन चुकी है। एनडीए (बीजेपी, जेडीयू, हम, एलजेपी) का लक्ष्य 225 सीटें जीतना है, जबकि महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, वाम दल) सामाजिक न्याय के मुद्दे पर वोट बटोरने की कोशिश में है।  

नीतीश कुमार की ताकत उनकी ईबीसी-दलित गठजोड़ और विकास की छवि है, लेकिन बार-बार पाला बदलने की वजह से उनकी विश्वसनीयता दांव पर है। मोदी और शाह बीजेपी को सवर्ण और ओबीसी वोटों के दम पर नंबर वन बनाना चाहते हैं, लेकिन सवर्ण असंतोष उनकी राह में रोड़ा बन सकता है।  

तेजस्वी यादव का फोकस युवा, बेरोजगार और पिछड़े वर्ग पर है। उनकी निजी क्षेत्र में समावेशिता और परिसीमन की मांग ने सियासी बहस को नई दिशा दी है। लेकिन यादव-मुस्लिम वोटों पर अति-निर्भरता और महागठबंधन में एकता की कमी उनकी राह में चुनौती है।  

छोटी पार्टियां जैसे जीतन राम मांझी की हम (मुसहर वोट) और चिराग पासवान की एलजेपी (दलित वोट) गठबंधन में अहम भूमिका निभा सकती हैं। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी नए समीकरण बना सकती है।  

जातिगत जनगणना के आंकड़े अगर 2025 से पहले आए, तो यह आरक्षण, परिसीमन और सियासी रणनीतियों को बदल सकता है। लेकिन अगर यह देरी से आई या विवादों में घिरी, तो सियासी अस्थिरता बढ़ सकती है। बिहार की जनता, जो विकास, रोजगार और सामाजिक न्याय की आस लगाए बैठी है, इस बार किसे चुनेगी?