ओम प्रकाश राजभर: यूपी की सियासत का बड़ा खिलाड़ी और बिहार में नया दांव !
Editor : Shubham awasthi | 03 May, 2025
उत्तर प्रदेश की सियासत में कुछ चेहरे ऐसे हैं, जो हर बार सुर्खियों में छा जाते हैं। इनमें से एक हैं सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और योगी आदित्यनाथ सरकार में कैबिनेट मंत्री ओम प्रकाश राजभर।

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बिहार में नई सियासी जमीन तलाशने की कोशिश हो, या पंचायत चुनाव में बड़ा दांव, राजभर हर कदम पर चर्चा में रहते हैं। उनकी हालिया मुलाकात केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से हुई, जिसने एक बार फिर सियासी गलियारों में हलचल मचा दी। आइए, इस लेख में हम राजभर की सियासी रणनीति, उनकी पार्टी के अंदरूनी संकट, और उत्तर प्रदेश व बिहार की राजनीति में उनके प्रभाव का विश्लेषण करते हैं। 15 सितंबर 1962 को वाराणसी में जन्मे ओम प्रकाश राजभर ने अपनी राजनीति की शुरुआत 1981 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम के साथ की। 2001 में मायावती से मतभेद के बाद उन्होंने बसपा छोड़ दी और 2002 में सुभासपा की स्थापना की। राजभर समाज, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा है, को एकजुट करने में उनकी भूमिका अहम रही। उन्होंने राजभर समुदाय के लिए आरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया।
2017 में सुभासपा ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन किया, जिसके परिणामस्वरूप राजभर जहूराबाद से विधायक बने और योगी सरकार में पिछड़ा वर्ग कल्याण और दिव्यांगजन कल्याण मंत्री नियुक्त हुए। हालांकि, गठबंधन विरोधी गतिविधियों के चलते 2019 में उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया और छह सीटें जीतीं। लेकिन 2023 में वे फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हो गए। उनकी यह "पलटी" उन्हें "पलटूराम" का तमगा दिला चुकी है।
वर्तमान में, राजभर योगी सरकार में पंचायतीराज और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हैं। उनकी पार्टी पूर्वांचल की करीब 28 लोकसभा सीटों पर प्रभाव रखती है, जिसके चलते वे हर बड़े दल के लिए अहम हैं।
अमित शाह से मुलाकात: जाति जनगणना और बिहार की रणनीति
हाल ही में ओम प्रकाश राजभर ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से दिल्ली में मुलाकात की, जिसने सियासी हलकों में चर्चा का बाजार गर्म कर दिया। राजभर ने इस मुलाकात को जाति जनगणना के फैसले पर बधाई देने का अवसर बताया। उन्होंने कहा, "हम लंबे समय से जाति जनगणना की मांग कर रहे थे। यह सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम है।" इसके साथ ही, उन्होंने रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग दोहराई, जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए उप-वर्गीकरण की वकालत करता है।इस मुलाकात का एक बड़ा हिस्सा बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की रणनीति पर केंद्रित था। सुभासपा ने बिहार में अपनी मौजूदगी बढ़ाने की ठानी है। राजभर ने दावा किया, "हमारी पार्टी बिहार की कई सीटों पर गेमचेंजर साबित हो सकती है।" उन्होंने कहा कि अगर एनडीए के साथ गठबंधन होता है, तो वे साथ मिलकर लड़ेंगे, अन्यथा सुभासपा अकेले 156 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। अमित शाह ने 20-25 दिन बाद दोबारा चर्चा का आश्वासन दिया है।
राजभर का यह दांव बिहार में उनकी पार्टी के लिए नई संभावनाएं तलाशने की कोशिश है। बिहार में राजभर, नाई, गोड़, और प्रजापति जैसे अति पिछड़े समुदायों में उनकी पैठ है। 2023 में पटना की एक रैली में उन्होंने दावा किया था कि 2025 में सुभासपा के 10 विधायक होंगे। हालांकि, बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गजों के सामने उनकी राह आसान नहीं होगी।
पंचायत चुनाव में बड़ा दांव: सिस्टम में बदलाव की मांग
उत्तर प्रदेश में 2026 के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं। पंचायतीराज मंत्री के रूप में, राजभर ने एक ऐसी मांग उठाई है, जो ग्रामीण सियासत को नया रंग दे सकती है। वर्तमान में, जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों का चुनाव पंचायत सदस्य और क्षेत्र पंचायत सदस्य (बीडीसी) करते हैं। लेकिन सत्ता बदलते ही अविश्वास प्रस्ताव या हटाने की सियासत शुरू हो जाती है, जिससे व्यवस्था अस्थिर हो जाती है।
राजभर ने मांग की है कि इन चुनावों की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव हो, ताकि यह अधिक स्थिर और पारदर्शी हो। उनकी मांग है कि जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों का चुनाव सीधे जनता द्वारा हो। इससे न केवल सत्ता के खेल पर लगाम लगेगी, बल्कि ग्रामीण नेतृत्व को भी मजबूती मिलेगी। अगर यह प्रस्ताव लागू होता है, तो यूपी के गांवों की सियासत में एक नया युग शुरू हो सकता है।
सुभासपा में बगावत: मुस्लिम नेताओं का इस्तीफा और महेंद्र का सपा में जाना
सुभासपा का किला पूरी तरह अटल नहीं है। हाल ही में पार्टी में भूचाल आया, जब करीब 200 मुस्लिम नेताओं और पदाधिकारियों ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया। इन नेताओं का आरोप है कि सुभासपा अब सत्ता की भूखी हो गई है और राजभर सिर्फ अपने फायदे के लिए काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम समुदाय को पार्टी में हाशिए पर धकेला जा रहा है। यह बगावत राजभर के लिए बड़ा झटका है, क्योंकि उनकी पार्टी अल्पसंख्यकों के समर्थन का दावा करती रही है।
इसके अलावा, राजभर के करीबी और 2017 में मऊ सदर से सुभासपा के उम्मीदवार महेंद्र राजभर ने भी पार्टी छोड़ दी और सपा में शामिल हो गए। महेंद्र वही नेता हैं, जिन्हें पीएम मोदी ने "कटप्पा" कहकर बाहुबली मुख्तार अंसारी के खिलाफ प्रचार किया था। उनका सपा में जाना सुभासपा के लिए न केवल सियासी, बल्कि प्रतीकात्मक नुकसान भी है।
इस बगावत ने सुभासपा की आंतरिक एकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि राजभर की बार-बार पाला बदलने की रणनीति और सत्ता केंद्रित राजनीति ने कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा किया है।
अखिलेश यादव पर तीखा हमला: सपा की सियासत पर सवाल
राजभर ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर ताबड़तोड़ हमले किए हैं। उन्होंने कहा, "अखिलेश झूठ की फैक्ट्री चलाते हैं। सीएए-एनआरसी के दौरान उन्होंने मुस्लिम समुदाय को गुमराह किया कि उनकी नागरिकता छिन जाएगी। क्या एक भी मुस्लिम की नागरिकता गई?" राजभर ने सपा की पांच साल की सरकार पर भी सवाल उठाए, पूछा कि उस दौरान मुस्लिम समुदाय के लिए क्या किया गया।
उन्होंने वक्फ बोर्ड बिल संशोधन का समर्थन करते हुए कहा कि इससे गरीब मुस्लिम समुदाय को संपत्ति का लाभ मिलेगा। साथ ही, उन्होंने मांग की कि मदरसा बोर्ड को यूपी और सीबीएसई बोर्ड की तरह मान्यता मिले, ताकि मदरसों के छात्रों को बेहतर अवसर मिलें। राजभर का यह स्टैंड उनकी खोई हुई साख को वापस लाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है, खासकर मुस्लिम समुदाय के बीच।