उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव, सियासी पेंच और अखिलेश के PDA की चुनौती
Editor : Shubham awasthi | 23 April, 2025
उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में पेंच फंस गया है. राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले यूपी का प्रदेश अध्यक्ष चुनना बीजेपी के लिए काफी अहम हो गया है. अखिलेश यादव के PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) गठजोड़ के कारण बीजेपी पर दबाव बढ़ा है. पार्टी एक सशक्त पिछड़ा या दलित चेहरा तलाश रही है जिससे यूपी की राजनीतिक चुनौती का सामना किया जा सके

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उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में पेंच फंस गया है. राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले यूपी का प्रदेश अध्यक्ष चुनना बीजेपी के लिए काफी अहम हो गया है. अखिलेश यादव के PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) गठजोड़ के कारण बीजेपी पर दबाव बढ़ा है. पार्टी एक सशक्त पिछड़ा या दलित चेहरा तलाश रही है जिससे यूपी की राजनीतिक चुनौती का सामना किया जा सके बीजेपी में इस वक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को लेकर जो असमंजस की स्थिति बनी हुई है, उसके पीछे उत्तर प्रदेश में नए प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में फंस रही पेंच भी एक वजह मानी जा रही है. जब तक उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में नए प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा नहीं हो जाती, तब तक राष्ट्रीय अध्यक्ष की ताजपोशी भी टलती नजर आ रही है उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव: सियासी पेंच और अखिलेश के PDA की चुनौती
उत्तर प्रदेश की सियासत में इस समय भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए एक नया और जटिल दौर शुरू हो चुका है। प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में पेंच फंसने की खबर ने न केवल पार्टी के आंतरिक गतिशीलता को उजागर किया है, बल्कि समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख अखिलेश यादव की रणनीति 'पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक' (PDA) गठजोड़ के कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों को भी रेखांकित किया है। बीजेपी, जो उत्तर प्रदेश में 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में रही, अब 2027 के आगामी विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए एक सशक्त पिछड़ा या दलित चेहरा तलाश रही है। यह लेख इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं, बीजेपी की रणनीति, अखिलेश के PDA मॉडल की ताकत, और उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक समीकरण
बीजेपी के लिए क्यों अहम है प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव?
उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है। 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाला यह राज्य किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए सत्ता का रास्ता तय करता है। बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में इसने यहां से भारी जीत हासिल की थी। हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को अपेक्षा से कम सीटें मिलीं, जिसके बाद पार्टी के भीतर आत्ममंथन का दौर शुरू हुआ।
प्रदेश अध्यक्ष का पद बीजेपी के संगठनात्मक ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह पद न केवल पार्टी की रणनीति को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, बल्कि कार्यकर्ताओं को एकजुट करने और विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच समन्वय स्थापित करने में भी अहम होता है। वर्तमान में भूपेंद्र सिंह चौधरी उत्तर प्रदेश बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, जिन्हें 2022 में यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन को लेकर उठे सवालों और अखिलेश यादव की PDA रणनीति के बढ़ते प्रभाव ने बीजेपी को अपने नेतृत्व पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया है।
राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष का चयन इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि यह बीजेपी के लिए 2027 के विधानसभा चुनावों की दिशा तय करेगा। पार्टी नहीं चाहती कि कोई ऐसा कदम उठे, जिससे सामाजिक समीकरण बिगड़ें या विपक्ष को हमला करने का मौका मिले। खासकर, अखिलेश यादव की PDA रणनीति ने बीजेपी को पिछड़े, दलित, और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच अपनी पैठ मजबूत करने के लिए नए सिरे से रणनीति बनाने पर मजबूर किया है।
अखिलेश यादव का PDA मॉडल: बीजेपी के लिए चुनौती
अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनावों में अपनी PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति के दम पर समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक सफलता दिलाई। सपा ने 37 सीटें जीतकर न केवल बीजेपी को कड़ी टक्कर दी पिछड़ा वर्ग (OBC): लगभग 42-43%, जिसमें यादव (19.4%), कुर्मी/पटेल (7.4%), निषाद/मल्लाह/केवट (4.3%), लोध (4.8%), जाट (3.6%), और अन्य छोटी जातियां शामिल हैं।
दलित: लगभग 21%, जिसमें जाटव (बसपा का कोर वोट बैंक) और गैर-जाटव (पासी, खटीक, बाल्मीकि, कोरी आदि) शामिल हैं।
अल्पसंख्यक (मुख्य रूप से मुस्लिम): लगभग 19%।
सवर्ण: 17-19%, जिसमें ठाकुर, ब्राह्मण, और अन्य जातियां शामिल हैं।
अखिलेश यादव ने PDA मॉडल के तहत इन समुदायों को एकजुट करने की रणनीति अपनाई। उन्होंने न केवल यादव और मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत किया, बल्कि बसपा के दलित वोट बैंक में सेंधमारी की और गैर-यादव OBC समुदायों को भी अपनी ओर आकर्षित किया।